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लोकरंग-1 और लोकरंग-2 पुस्तकें, जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा, भोजपुरी विभाग, एम.ए. पाठ्यक्रम, 2012 से संदर्भ ग्रंथ के रूप में शामिल हैं ।
`लोकरंग – 1´ पुस्तक
संपादकीय
लोकगीत जन इतिहास का निरूपण करते हैं
इतिहास मात्र राजा-रजवाड़ों और उनके विजय अभियानों का कालक्रमानुसार घटनाचक्र का लेखा-जोखा नहीं होता। इतिहास में वह सारा सामाजिक परिवेश होता है,जिस कालखंड की व्याख्या इतिहास करना चाहता है । जिस काल में शासन के केन्द्रीय तत्व समय सापेक्ष पर शासन कर रहे होते हैं उसी काल में व्यापक जनसमुदाय की वस्तुस्थिति,सोच,समझ और सक्रियता की अगर इतिहास अनदेखी करता है तो जन सामान्य अपने ढ़ंग से इतिहास की व्याख्या भी करता है ,बेशक वाचिक परम्परा में ही सही । लोकगीतों के वाचिक परंपरा में ऐसे तमाम तथ्य जिंदा रह जाते हैं जो तोड़-मरोड़ कर लिखे गए इतिहास को झकझोरते हैं ।
इतिहास निरूपण में अभिजात्यवर्गीय सोच के कारण इतिहास ने सदा संभ्रांतवर्ग की पक्षधरता अपनाई है । वह गांव के बजाए सत्ता केन्द्रों की विषयवस्तु रहा है । सामान्य के बजाए अभिजात्य की घटनाओं पर दृष्टि डालने की प्रवृत्ति,व्यक्ति महिमा को उजागर करने का उपक्रम रही है । जनसमुदाय किसी व्यक्ति विशेष की महिमा का बखान तभी करता है जब प्रचलित इतिहास उस व्यक्ति के मूल्यांकन में ईमानदारी नहीं बरतता है। कुंवर सिंह की वीरता का जब इतिहास सही मूल्यांकन नहीं करता तब शाहाबाद जिला(बिहार)की जनता होली की शुरुआती ताल में गाती है -`बाबू कुंवर सिंह तोहरे राज बिनु हम ना रंगइबो केसरिया।´
इतिहास का अभिजात्य वर्गीय चरित्र जनविरोधी कहा जा सकता है । वह जनता की सोच और समझ का अतिक्रमण करता है । वह समाज पर कृत्रिम विचार लादता है । काशी की जनता को अंग्रेजों की दया पर छोड़ कर शिवाला घाट पर स्थित महल की खिड़की से गंगा में कूदकर भाग जाने वाले चेतसिंह का वर्णन तो इतिहास करता है लेकिन महल के फाटक पर काशीराज की प्रतिष्ठा के लिए मर मिटने वाले नन्हकू सिंह, ब्रहमनाल की गली में संगीनों से घिरे जीवन के अंतिम क्षण तक लाठी भांजते विश्वनाथ सिंह,बहादुर सिंह और नागरिक अधिकारों की रक्षा के प्रति जागरूक काले पानी की सजा भुगतने वाले दाताराम नागर के लिए इतिहास मौन हो जाता है ।1
महाराष्ट्र के पौवाड़े इतिहास की बहुत बड़ी सम्पत्ति समझे जाते हैं । वे जन इतिहास की व्याख्या करने में सक्षम हैं । अंग्रेजों के चाटुकार राजे-रजवाड़ों के खिलाफ बोलने का साहस पढ़े-लिखे लोगों ने भले न किया हो पर तमाम नचनियों और भांट कवियों ने अपनी रचनाओं में आवाज उठाई है । भिखारी ठाकुर के नाट्य मंडली के शुरुआती संगी रहे रसूल हजाम हथुवां (सीवान)के पास के गांव के रहने वाले थे । उनके बारे में कुछ जानकारी मुझे अपने पिता जद्दू भगत से मिली है । वह बताते हैं कि रसूल हजाम के आगे के दांतों को हथुआ(बिहार) की रानी ने इसलिए तोड़ दिया था क्योंकि रसूल ने एक नाच में कविता पढ़ी थी- ` इ बुढ़िया, जहर के पुड़िया , ना माने मोर बतिया रे ! ´ कुछ इसी तरह की घटना भिखारी ठाकुर के बारे में बक्सर राज के आदमियों द्वारा उनके दांत तोड़ने के संबंध में बताई जाती है । संभव है कि एक ही घटना को दोनों से जोड़ दिया गया हो । भिखारी ठाकुर के बारे में हमारे पास बहुत सारी जानकारियां उपलब्ध हैं । संजीव का उपन्यास `सूत्रधार´ आ चुका है पर रसूल हजाम के बारे में अभी तक ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई है । रसूल हजाम की डायरी ,उनके मरणोपरांत कोई सज्जन उनके लड़कों से मांग ले गए परन्तु न तो उन्होंने कोई काम किया न डायरी लौटाई । हमारी कोशिश रहेगी कि आगे के वषों में रसूल हजाम पर जरूरी जानकारी उपलब्ध कराई जाए ।
इस संग्रह में भिखारी ठाकुर की नाट्य शैली `विदेशिया´ पर का0 चन्द्रशेखर के आलेख से, जो पहली बार प्रकाशित हो रहा है , तत्कालीन समाज के इतिहास को समझने में मदद मिलेगी ।
इतिहास ने सदा अभिजात्य वर्गीय मानसिकता से काम किया है और अपनी माटी की रक्षा के लिए खून-पसीना बहाने वालों के साथ अन्याय किया है । समाज के दबे-कुचले वर्ग ने लोकगीतों के माध्यम से समाज की तमाम विसंगतियों पर प्रहार किया है,खासकर सामंतवादी प्रवृतियों के खिलाफ । परन्तु इनमें से अधिकांश को संभ्रातों द्वारा या तो दबा दिया गया या नष्ट कर दिया गया । अभिजात्यवर्गीय समाज ने लोकगीतों में हस्तक्षेप किया और लोकसंस्कृति को मात्र मनोरंजन, प्रदर्शन ,पूजा-पाठ,संस्कार गीत या भजन गायकी तक समेट कर रख दिया । क्या कारण है कि हीरा डोम की मात्र एक कविता उपलब्ध हो पाई है । उनकी कविता के तेवर देखकर यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि उन्होंने एक कविता ही लिखी होगी । संभव है ,उनकी रचनाओं के तेवर देख , वर्णवादियों ने नष्ट कर दिया हो । हाशिए के लोगों की पीड़ा,जो लोक गीतों में व्यक्त हुई है, उसे दबाने तथा संस्कारगीतों के नाम पर धार्मिक,वैवाहिक और मनोरंजन प्रधान गीतों को बढ़ाया गया है । लोकगीतों को इकट्ठा करने वालों ने भी चमरऊ गीतों में जातिदंश की पीड़ा व्यक्त करने वाले गीतों की उपेक्षा की है । संभव है इन लोकगीतों में कुछ तथ्यहीन बातें भी स्थान पा चुकी हैं फिर भी उनके सामाजिक संदर्भों को नकारा नहीं जा सकता । इस दृष्टि से संग्रह में कंवल भारती एवं बद्रीनारायण के आलेख, लोकसंस्कृति के पुन: मूल्यांकन की मांग करते हैं ।
जैसे कि लोरिकायन गाथा गीत जो 12वीं सदी से लेकर 1404 ई0 तक के मध्य का है, पिछड़ी और दलित जातियों से संबंध रखता है । इस वीर रस की रचना में तमाम अतिरंजित बातें भले हों फिर भी एक तरह से यह गाथा अहीर,दुसाध,धोबी आदि जातियों के सामाजिक इतिहास को व्यक्त करता है ।
अंग्रेजों के शासनकाल में जहां एक ओर भारतीय सामंतशाही अंग्रेजों की चाटुकारिता में व्यस्त थी वहीं जनकवियों ने लोकगीतों में जनता की पीड़ा को व्यक्त करने का साहस दिखाया । एक बुंदेली लोकगीत में अंग्रेजी काल में किसानों की दुर्दशा का वर्णन इस प्रकार हुआ है- पोता लाग रहा महराज, जुनरिया हो गई मन भर की 2(1)।
आए तैसीलदार होने लगी कुरकी ,जुनरिया हो गई मन भर की ।
लांगा बिक गयो,लंगरा बिक गयो
बिक गइ अंगिया तन की, ,जुनरिया हो गई मन भर की ।
राजा के बांधन को सेला बिक गयो
फजिअत हो गई घर-घर की, ,जुनरिया हो गई मन भर की ।2(2)
इस गीत में अंग्रेजीकाल में किसानों की बढ़ती गरीबी का चित्र दिख जाता है । लोकगीतों में किसानों का दुख-दर्द तो उभरता ही है, इससे हम लोगों के रहन-सहन,आर्थिक और सामाजिक स्थिति का पता लगा लेते हैं । इससे अकाल,सूखा और मौसम की भी जानकारी मिल जाती है । बुंदेलखंड में पड़े सूखे की अभिव्यक्ति पांडोरी गांव के एक लोकगीत में देखने को मिलती है-
पांडोरी की सूखा गै सब रे तला,बरसे नाईं पापी उकऊ झला ।
काय पै फिरतीं धरैं डला, पांडोरी के सूखे गै सब रे तला,
बरसे नाईं पापी एकऊ झला ।3
भारतेंदु हरिश्चंद्र सन् 1857 के विद्रोह से सात वर्ष पूर्व पैदा हुए थे । जाहिर है कि उनके बचपन ने विद्रोह ज्वाला की तपिश महसूस की होगी । खेद और आश्चर्य का विषय है कि उनकी रचनाओं में कहीं भी सन् सत्तावन के विद्रोही स्वर सुनाई नहीं पड़ते । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने एक पुस्तक `हिन्दी -भाषा´ लिखी थी जो `खड्गविलास प्रेस´(पटना)से छपी थी । इसमें भारतेंदु की कुछ भोजपुरी रचनाएं हैं । कलक्टर राबर्ट साहब की चमचागिरी में उन्होंने लिखा था- ` जैसन हमनीं के जिला के कलक्टर,राबरट साहब के कदम देखाइल हा । ऐसन हाकिम दुआबा देस हित केहू,हमनी के होस में त आजुले ना आइल हा ।4
कवि भारतेंदु की सामंतशाही अपने वर्ग चरित्र का ही प्रतिनिधित्व करती दिखती है । और तो और उनकी पूरी मंडली चाटुकारिता में लीन दिखती है -`पूरी अमी की कटोरिया-सी चिरजीवी सदा विकटोरिया रानी´ लिखकर देश को रौंदने वाली विक्टोरिया रानी का स्तुति गान करने में जब भारतेंदु मंडली लगी हुई थी तब मिर्जापुर की कुलवधुएं, मिर्जापुरी कजरियों में गा रही थीं –
रापट साहब चापट कीहेन मनी साहेब बेकाम,
कइसे खेलों कजरिया सखिया होइगा मिरजापुर बदनाम ।5
इतिहास श्री राबट्स को भले ही राबर्ट्सगंज के उन्नायक के रूप में स्मरण करे, लोकगीतों में वे वही हैं जो वस्तुत: थे ।
साहित्यिकों को छोड़कर साधारण और अज्ञात कवियों तथा जनसमुदाय की ओर आने से हमें ज्ञात होता है कि उन्होंने विद्रोह के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करने में संकोच नहीं किया । उनमें विद्रोहियों के प्रति सद्भावनाएं मिलती हैं, उनके शौर्यपूर्ण कृत्यों का उल्लेख मिलता है और कभी-कभी तो उनका निजी हार्दिक उल्लास और उत्साह घटनाओं के साथ गुंथा हुआ मिलता है । बैसवाड़े के दुलारे नामक कवि ने अपने एक गीत में शंकरपुर के राना बेनी माधव बख्श सिंह की भरपूर प्रशंसा की है, जिन्होंने डटकर अंग्रेजों का मुकाबला किया था । `अवध में राना है मरदाना !´ यह इस गीत का टेक है । रायबरेली जिले में हमीर गांव निवासी बजरंग ब्रह्मभट्ट ने भी राना की वीरता अपनी आंखों से देखी थी । इस कवि ने राना की प्रशंसा में एक छंद को इस प्रकार समाप्त किया है-नेक न डेराना छीन लीन्ह्यो तोपखाना,वीर बांधे बीर बाना बैस राना बिरम्हाना है ।´ 6
श्री रामनेरश त्रिपाठी ने लिखा है कि उनके गांव कोरीपुर (जौनपुर) के पास चंदा नाम का एक गांव है, जहां सन् 1857 में अंग्रेजों से कालाकांकर (प्रतापगढ़) के राजा बिसेनवंशी से घोर युद्ध हुआ था । इस गांव के आसपास आज भी एक विद्रोही गीत सुनाई पड़ता है – काले कांकर क बिसेनवा चांदे गाड़े बा निसनवा ।´7 बिहार के एक लोकगीत में कुंवरसिंह का व्यक्तित्व चित्रित किया गया है, जो सन् 1857 के विद्रोह के प्रसिद्ध व्यक्तियों में से थे । यह गीत स्त्रियां जांत की धुन में गाती हैं8–
ए सुन अमरसिंह भाय हो राम ।
चमड़ा के टोड़वा दांत से हो काटे कि
छत्तरी के धरम नसाय हो राम ।
बाबू कुंवरसिंह औ´ भाई अमरसिंह
दूनों अपने हैं भाय हो राम
बतिया के कारन से बाबू कुंवरसिंह
फिरंगी से राड़ बढ़ाय हो राम ।
दानापुर से जब सजलक हो कंपू
कोइलवर में रहे छाय हो राम ।
लाख गोला तुहुं कै गनि कै मरिहैं
छोड़ बरहरवा के राज हो राम ।
रोवत बाड़े बाबू तो कुंवरसिंह
मुखवा पर धर के रूमाल हो राम ।
ले ली लड़इया हम तो बूढ़ा हो समय में
अब कउन होइहें हवाल हो राम ।
यद्यपि इस लोकगीत में निराशा का भाव उभरा है जो कुंवरसिंह की वीरता के साथ न्याय नहीं करता फिर भी इसे हम जनमानस में व्याप्त जोश के साथ-साथ निराशा की मनोवृत्ति समझ सकते हैं । कोटारु, जिला इटावा के एक लोकगीत में झांसीवाली रानी का चित्र अत्यंत सरलता पूर्वक उपस्थित किया गया है9–
बुरजन-बुरजन तोपें लगाइ दईं
गोला चलाए अस्मानी,
अरे झांसीवाली रानी, खूब लड़ी मरदानी ।
सगरे सिपहियों को पेड़ा-जलेबी,
आपने चबाई गुड़धानी
अरे झांसीवाली रानी, खूब लड़ी मरदानी ।
छोड़ मोरचा लश्कर को भागी,
ढूंढ़ेहु मिलै न पानी,
अरे झांसीवाली रानी, खूब लड़ी मरदानी ।
एक लोकगीत में राजा बेनीमाधव बख्श सिंह का यशोगान इस प्रकार है10–
धूम मचाई मोरे राम रे !
लिखि-लिखि चिठिया लाट ने भेजा,
आव मिलो राना भाई रे !
जंगी खिलत लंदन से मंगा दूं,
अवध में सूबा बनाई रे !
जवाब सवाल लिखा राना ने,
हमसे न करो चतुराई रे !
जब तक प्राण रहें तन भीतर,
तुम कन खोद बहाई रे !
जमींदार सब मिल गए गुलखान,
मिल-मिल के कमाई रे !
एक तो बिन सब कट-कट जाई,
दूसरे गढ़ी खुदवाई रे !
राजा गुलाब सिंह की वीरता का गान संडीला(हरदोई) के एक लोकगीत में मिलता है11-
एक बार दरस दिखावा रे !
अपनी गढ़ी से यह बोले गुलाबसिंह
सुन रे साहब मोरी बात रे !
पैदल भी मारे सवार भी मारे,
मारी फौज बेहिसाब रे !
बांके गुलाबसिंह रहिया तोरी हेरूं,
एक बार दरस दिखावा रे !
पहली लड़ाई लखनतगढ़ जीते,
दूसरी लड़ाई रहीमाबाद रे !
तीसरी लड़ाई संड़ीलवा में जीते,
जामू में कौन मुकाम रे !
राजा गुलाबसिंह रहिया तोरी हेरूं
एक बार दरस दिखावा रे !
इस प्रकार हम पाते हैं कि लोकगीतों में और खासकर भोजपुरी लोकगीतों में नवजागरण की सक्रियता देखी जा सकती है। डॉ ग्रियर्सन ने ठीक ही लिखा है -`हिन्दुस्तान में नवजागरण का श्रेय मुख्यत: बंगालियों और भोजपुरियों को ही प्राप्त हैं ।´ इसी संदर्भ में डॉ वेद प्रकाश पांडेय का आलेख दिया जा रहा है । इसलिए महाराष्ट्र में `मराठा मानुष´ का सवाल उठाने वालों को आंखें खोलकर भोजपुरी समाज के राष्ट्रीय योगदान को देख लेना चाहिए ।
लोकगीतों में तमाम पौराणिक गाथाओं या हमारे देवी-देवताओं की एक अलग तस्वीर दर्शाई गई है । अधिकांश जनगीत, देवी-देवताओं के चित्रण में जनपक्षधर विचारों को स्थान देते हैं । अतिरंजना को स्थान मिलता है वह जनसामान्य के अंदर छिपे अतिरेक उत्साह या दबे गुस्से का प्रमाण मात्र है । लोकगीतों में हमारे देवी-देवता या पौराणिक पुरुष सामान्य जनता के अलावा कुछ नहीं लगते । उनके रहन-सहन,विचार सब कुछ आम जनता के समान ही है । वहां चमत्कारिक बातों को स्थान नहीं दिया गया है । इसलिए कहा जा सकता है कि वास्तविक इतिहास लोकगीतों में उपलब्ध है, भले ही वह कुछ अतिरंजित रूप में क्यों न हो । लोकगीतों के राजा-रानी शासन तंत्र के निर्जीव यंत्र न होकर हाड़-मांस के मनुष्य हैं, उनकी अपनी आशा-आकांक्षाएं हैं, अपने सपने हैं ।12 उत्कल(उड़ीसा) लोक साहित्य में राम राजा नहीं ,अपितु किसान हैं । वह हल चलाते हैं,लक्ष्मण जुताई करते हैं और सीताजी बीज बोती हैं –
आऊरी घड़िए हेले पाईवो मेलानी
खाईवो कंचा घास जे …पीईवो ठंडा पानी हो …
बूढ़ा बलद कु जे हलिया मंगु नांईं
राम बंधे हल् लइखन देवे माई
आऊरी कि करिवे जे …
सीताया देवे रोई जे 13….
एक लोकगीत में राम कथा के पराक्रमी दशरथ हेलिन(चमाइन) से अपने लिए निरवंशी विशेषण सुनकर संतान के लिए व्यथित और लालायित दृष्टिगोचर होते हैं-
हेलिन,तोहरा के रानी बोलावेली, त रानी मोर उदासल हो ।1।
पइसी जगावेली हेलिनिया,उठीं ना सिर साहेब हो ।
साहेब,देखलीं निरबंसिया के मूंह, आजु रे दिन कइसन हो ।2।
अतना बचन राजा सुनलन, सुनहिं नाहिं पावेले हो ।
राजा,गोड़ मुड़ तानेले चदरिया, सूतेले गजओबर हो ।3।
पइसी जगावेली कोसिला रानी, उठीं ना सिर साहेब हो ।
साहेब,उठी के करीं ना दतुअनिया, त अवरू असननवा नू हो ।4।
कइसे के उठीं हम कोसिला रानी, हमरा बड़ा सोच बाटे हो ।
आरे नीचहिं जात के हेलनिआ, हमें निरबंसिया कहे हो ।5।
आरे कोसिला के भइले राजा रामचन्दर,सुमितरा के लछुमन हो ।
आरे,केकई के भरत भुआल, तीनो रे घरे सोहर हो ।6।
ओबरी14 से बोलेली कोसिला रानी, सुनीं राजा दसरथ हो ।
ए राजा, सोने के तिलरिया गढ़ाईं हेलनिया पहिरावहु हो ।7।
इस गीत में जाति-दंश भी दिखाई दे रहा है । आश्चर्य का विषय तो यह है कि राजा हेलिन को दंड देने के बजाए, पुरस्कृत करते हैं । लोकगीतों का यह साहसिक कदम माना जा सकता है कि एक दलित स्त्री के मुख से राजा को निरवंशी कहलाया जाता है और राजा इसे सुन कर कुछ नहीं करते ।
इसी प्रकार तमाम लोकगीतों में कैकेयी और कौशिल्या की कहासुनी का निर्णय राज-परोसिनें करती हैं, वाल्मीकि लव को पाप का जन्मा कहते हैं,त्रेता का राजा लोक न्यायाधिकरण में अपराधी है ।15 इसलिए कहा जा सकता है कि लोकगीतों में तमाम मिथकों, या देवी-देवताओं को सामान्य जन की कोटि में ही रखने का प्रयास किया गया है । जैसा के पूर्व में उल्लेख किया गया है कि पौराणिक कथानकों को महिमामंडित करने या उन्हें परम मानव की श्रेणी में रखने का प्रचलन रहा है । जबकि सुधीजन की बोलियों में हमारे तमाम महापुरुष सामान्य जन की कोटि में ही नजर आते हैं । रामायण के राम, राजा हैं और रामचरितमानस के मर्यादा पुरूषोत्तम, पर लोकगीतों में वह सामान्य जन चित्रित किए गए हैं । पौराणिक तथ्यों के विपरित एक लोकगीत में उल्लेख है कि सीता को पुत्रवती नहीं होने पर राम निष्काषित करते हैं । वन में सीता को पुत्र पैदा होता है । सीता इसकी सूचना अयोध्या भिजवाती तो हैं पर संदेशवाहक को हिदायत देती हैं कि सबको खबर करना पर राम को नहीं । संदेशवाहक को राम पोखरे पर दतुवन करते मिलते हैं । राम का पोखरे पर दतुवन करते दर्शाना उन्हें जनसामान्य की श्रेणी में रखने का प्रयास ही है । राम सीता को बुलाने आते हैं पर स्वाभिमानी सीता धरती में समा जाना उचित समझती है16 –
ए ललना,के मोरा आगु-पाछु बइठिहेन, के मोर दरदिया हरिहेन हो ।
ललना,के मोरा सोने छुरिया लइहेन,के लिपिहें सोइरिया त के रे सोहरवा गइहें हो -1
बन में से निकलेली बनसपती,सीता के समुझावेली हो
ए ललना,हम रउरा लीपब सोइरिया,सोहर हम गाइब हो ।
ए ललना,हम लइबो सोने के छुरिया, त नार कटायेब हो- 2
मोरे पिछुअरवा नउआ भइया,तुहूं मोरा हित बसे हो
ललना,सीताजी के भइले नन्दलाल लोचनिया सीता भेजेली हो -3
मोर पिछुअरवा कायथ भइया,अवरू सुहित बसु हो
आरे,सीता जोगे चिठिया लिखि देहु,लोचनियां सीता भेजेली हो -4
पहिले लोचनियां राजा दसरथ,तब कोसिला रानी हो
आरे,तबे लोचनियां बबुआ लछुमन,राम जनि सूनस हो -5
नवहुं खंड के पोखर,राम दतुअनियां करे हो
ललना,धकर धकर जिउआ करे,कहां से नउआ आवेला हो -6
कहां के हव तुहूं नउआ, कहां तुहूं जइब हो
ललना, केकरा भेल नन्दलाल, लोचन पहुंचावल हो -7
हाथ के लेहले नउआ से पुरजवा, बाचिय ऊ धउड़ल हो
ललना, धाइ परसे गजओबर,सीता के बोलावन हो -8
बन में से निकलेली बनसपती, सीता के समझावेली हो
ललना अबकी कसूर सीता माफ करु, राम अइलन बोलावन हो -9
एके गो होरिलवा लागि उदबसलन17, राम बन भेजलन हो
ललना,हम न सहब सामी बात, धरती तर समायेब हो -10
राम कथा का प्रचलित तथ्य यह है कि सीता, राम के साथ वन जाती हैं । प्रस्तुत लोकगीत में इस तथ्य के विपरीत घटना का उल्लेख है । यहां राम सीता को घर छोड़ कर वन जाते हैं । वे अपनी मां से सीता की देख-रेख की जिज्ञासा प्रकट करते हैं । मां कहती है कि सीता मेरे कहे अनुसार रहेंगी तो उनका यथेष्ट आदर होगा । राम और सीता को इससे संतोष नही होता । सीता राम-वनगमन के बाद नैहर चली जाती हैं । नैहर के लोग उनका उपहास उड़ाते हैं जिससे सीता आहत होती हैं । पति के बिना नारी का अस्तित्व समाप्त करने की पुरुषवादी सोच का यहां सशक्त चित्रण हुआ है18–
ए माता, हम जइबो मधुबनवा,सीता कइसे रखबू हो ।
जाहु सीता रहिहें कहल में, अवरू टहल में हो ।
आरे, अंगना में कुइयां खनाइबि,तुलसी लगाइबि हो ।
आरे, सखिया का बीचे नहवाइबि, हिरदा बीचे राखबि हो । 1 ।
हम तोहिं पूछिला ए राम, त अवरू ए राम हो,
ए राम, बिना रे केवट केरा नइया, कहां जाइ लागी हो ।
ए राम,बिना रे पुरुस केरा तिरिया, कइसे रहिहेन हो।
बिना रे केवट केरा नइया, सुरुज दहे20 लगिहेन हो,
आरे, बिना रे पुरुस केरा तिरिया, नइहर जाइ लगिहेन हो ।
नेहाइ धोआइ सीता ठाढ़ि भइली, धरती निहस गइली हो,
आरे, नइहर के लोग अकुलइले, त कब ले सीता घरे जइहेन हो ।
रोयेली सीता अछन21 करेली, अवरू बिछन करेली हो
आरे,कइसहुं रामघर रहितें, रनिया कहइतीं,जइतीं घरवा आपन हो ।
स्त्री पीड़ा के स्वर हमें डॉ तैयब हुसैन पीड़ित एवं आशा कुशवाहा के आलेख में देखने मिल सकता है ।
राम का विवाह हो चुका है पर सीता अभी मायके में हैं । राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ ससुराल की ओर जाते हैं । रास्ते में उन्हें प्यास लगती तो कुएं पर पनिहारिन के पास जाते हैं । उसका कुल-गोत्र और परिचय पूछते हैं । पनिहारिन द्वारा अपना परिचय सीता के रूप में देने पर घर ले आते हैं । यह प्रसंग केवल लोकगीत में ही दर्ज है जो प्रचलित मान्यता से मेल नहीं खाता –
एक कोस गइले, दोसर कोस गइले, लागि गइले मधुर पिआस हो ।1।
ना देखीं ताल नाहिंए देखीं पोखर, एक त जे देखीले कुइयां पनभरनी हे ।
केकर हउ तू धिअवा पतोहिया, आरे केकर हउ तू अइसन सूनर हे ।
आपन नांव बताव हमें सुन्नरि, केकरा कहले से तू अइलू पनिया भरन हे ।
राजा दसरथ जी के धिअवा पतोहिया, रामजी के हईं अइसन सूनर हे ।
एतना बचन जब रामचन्दर सुनले, लेइ गइले सीता के बोलाई हे ।22
एक लोकगीत में कृष्ण के भाई के लिए बलराम के बजाए लखन का प्रयोग हुआ है -रथ चढल रघुनाथ आवेला,ऊपर कमर बांधे हरी । ताहि ऊपर भइया लछन आवेले,घंट घुघुर लाई हरी ।´ सीता के बाप द्वारा दहेज न देने पर दसरथ, सीता को मायके छोड़ आते हैं । कौशिल्या पूछती हैं कि ऐसा आप ने क्यों किया, सीता में क्या कमी है-
सीता के बाप दहेज नाहिं दिहले, अकसर आवे सीरी राम जी ।
दहेज दहेज जनि कर राजा, दहेज नेटुअवा के नाच जी ।
पुतवे पुतोहिए राजा घर भरि जइहें, धनि राजा भाग तोहार जी ।´
यहां एक स्त्री, दूसरी स्त्री की पीड़ा समझते हुए बहू के पक्ष में खड़ी दिखती है ।
राजा दशरथ के पुत्रों के जन्म के संबंध में जो कथा मिलती है उससे भिन्न कथा लोकगीत में उपलब्ध है । राजा दशरथ पुत्र जन्म के बाद अपनी बड़ी रानी से पूछते हैं-
रानी, कवन बरतन तुहूं कइलू , त राम फल पावेलू हो ।
कौशल्या कहती हैं – एक त में कइलीं एकारसी, दोआरसी के पारन हो ।
राजा,बिधि से कइलीं अतवार, त राम फल पाइला हो ।
सासु के लिपल नाहीं धंगलीं, भसुर परछांहि ना हो ।
राजा,रूसल ननदी मनवलीं, त राम फल पाइल हो ।
भूखा दुखा हम मानिला, लंगटा के बस्तर हो ।
राजा, भूखल भगिना जेंववलीं, त राम फल पाइला हो ।23
शिव-पार्वती प्रसंगों में भी लोकगीतों में तमाम प्रचलित मिथकों से भिन्न प्रसंगों का उल्लेख हुआ है । एक लोकगीत में शिवजी के भाई के रूप में बिदापति(विद्यापति) का उल्लेख हुआ है जो प्रचलित मान्यता से बिल्कुल भिन्न है –
सिव जे हरले गउरा देइ जीतली,हंसेले बिदापति भाई ए ।´24
जातिदंश के बारे में लोकगीतों में भले ही कड़े तेवर न देखने को मिलें ,जाति-दंश के प्रयुक्त शब्दों को देखने से समाज की वास्तविक संरचना का भान हो जाता है । सोहर की इस पंक्ति पर गौर करें – `चुप रहु हैलिनी छिनार तैं जतिया क पातिर ´ इससे जातिदंश की अभिव्यक्ति का भान तो मिलता ही है । ब्राह्मणवाद ने सदियों से हिन्दू समाज को ऊंची और नीची जातियों में बांट कर दोहन किया है और गरीबों से अपने पांव पुजवाएं हैं । जातिवादी समाज के कारण ही बहुसंख्यक हिन्दू समाज सदियों से शोषण का शिकार रहा है और उनमें एकता का अभाव रहा है जिसके कारण यह समाज धर्मभीरु,सामंतशाही के प्रति नतमस्तक, अंधविश्वासी, पाखंडी और कमजोर रहा है । नीची जातियां यद्यपि श्रम-प्रधान जातियां रही हैं तथापि उनकी स्थिति अकर्मण्य लोगों के सापेक्ष खराब रही है । ब्राह्मणवाद ने हिन्दू समाज में जो संस्कृति रची वह श्रम को निम्नकोटि में और चाकरी को ऊच्च कोटि में रखती आई है । वर्णवादी समाज का जाति विभाजन, कार्यें को बांट कर नीची जातियों से श्रम कराने तथा ऊंची जातियों द्वारा बैठे-बैठे मौज उड़ाने का उपक्रम था । लोकगीतों में ऐसे समाज का दृश्य बखूबी उभरता दिखाई दिया है -एक गीत के अंश देखें-
बसि गइलें कोइरी कोंहार हो ।
महला के आरि पासे बसि गइले हेलवा
डलवा बीने अनमोल हो ।25
घाघ की एक कविता देखें – `सावन भैंसा, माघ सियार । अगहन दरजी चैत चमार ।´ वर्णव्यवस्था के पोषकों द्वारा दलित समाज को मरे जानवरों की खाल या हड्डी बेचने वाला या जूठन खाकर पलने वाला समाज बना दिया गया था । इसलिए घाघ कहते हैं कि चैत में मवेशियों की बीमारियां अधिक होती हैं और वे मरते हैं जिससे चमारों को लाभ होता है । साथ ही साथ चैत मास में शादी-व्याह बहुत होते हैं तब जूठन खाकर चमार मोटे हो जाते हैं ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि लोकगीत क्षेत्र विशेष की सामाजिक,आर्थिक और ऐतिहासिक घटनाओं को समेटने में सक्षम हैं । लोकगीत जन इतिहास के निरूपण में सक्षम हैं । उनमें आम जन का या यों कहें अशिक्षित जन का ज्ञान, मर्म, सोच, समझ, संवेदना और संस्कार छिपा हुआ है । चाहें आजादी की लड़ाई का सवाल हो या पौराणिक कथानकों का, हर कहीं अपनी सोच, समझ के अनुसार आमजनता ने लोकगीतों में इतिहास को दर्ज किया है । हमारे पास अब तब जो संग्रहित लोकगीत हैं उन्हीं के आधार पर कहा जा सकता है कि आमजन का यह साहित्यिक निरूपण , किसी भी भाषा के समृद्ध साहित्य से कमतर नही है । इस दिशा में खासकर लोकगीतों को संग्रहित करने और लोकभाषा को बचाने की दिशा में और काम करने की जरूरत है । लोकसंस्कृति की हिफाजत के नाम पर बनी तमाम सरकारी संस्थाओं के पास न तो कोई दृष्टि है न उनकी सोच में लोकसंस्कृति है । वे तो लोकसंस्कृति को गंवारों की संस्कृति समझते हैं और उनकी प्रस्तुतियों में फूहड़पन को बढ़ा रहे हैं । खेद का विषय है कि राजस्थान को छोड़कर हमने अपनी लोकसंस्कृति को बचाने की दिशा में कुछ नहीं किया है ।
हिन्दुस्तानी लोकगीतों के संग्रह के क्षेत्र में अब तक जो महत्वपूर्ण कार्य हुए हुए हैं उनका जिक्र कर देना उचित होगा ।
सर्व प्रथम अंग्रेज अधिकारियों और ईसाई मिशनरियों ने लोक साहित्य को संग्रह करने का महत्वपूर्ण कार्य प्रारम्भ किया था । ये दोनों देश पर शासन करने और धर्मप्रचार के लिए भारतीय संस्कृति, लोकभाषा को समझ कर जनसाधारण के बीच अपनी पैठ बनाना चाहते थे । इसलिए इन्होंने यहां के इतिहास और भाषा का अनुशीलन किया । सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टाड ने सन् 1829 में ` ऐनल्स एंड एक्टिविटिज ऑव राजस्थान´ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ प्रकाशित किया । तदोपरान्त जे0ऐबट,रेवरेंड एस0 हिल्पस, सर रिचर्ड टेम्पुल, मिस फ्रेजर आदि विद्वानों की विभिन्न पुस्तकें प्रकाशित हुईं ।
वर्ष 1865 ई0 में सर चाल्र्स इलियट द्वारा `आल्हा खंड´ का संग्रह और संपादन भारतीय लोकसाहित्य के संकलन का प्रथम प्रयास था । 1871 ई0 में सी0आई0गोवर का `फोक सांग्स आफ सदर्न इंडिया´ प्रकाशित हुआ । 1875 ई0 में विलियम वाटरफील्ड ने `दी ले आफ आल्हा´शीर्षक से इसका अनुवाद प्रस्तुत किया । 1882 ई0 में तरुदत्त का`ऐंशियंटबैलेड्स एंड लीजेंड्स आफ हिन्दुस्तान´
1884 ई0 में सर टेम्पल का `लीजेंड्स आफ पंजाब´ प्रकाशित हुआ। कालांतर में क्षितिमोहन सेन, झबेरचंद मेघाणी, रणजीत राय मेहता, ताराचंद ओझा आदि विद्वानों ने लोकगीतों के उद्वार की ओर ध्यान दिया । बीसवीं सदी के प्रथमार्द्ध से पहले से लेकर इक्वीसवीं सदी की दहलीज तक देवेन्द्र सत्यार्थी ने पंजाब से लेकर श्रीलंका तक की यात्राएं कर लोकगीतों के संचयन में महत्वपूर्ण काम किया है ।
जहां तक हिन्दी भाषी क्षेत्र,भोजपुरी या उत्तरप्रदेश और बिहार के लोकगीतों के संग्रह का सवाल है इस दिशा में भी शुरुआत अंग्रेज विद्वानों द्वारा ही हुई है । सर जी0ए0 ग्रियर्सन, विलियम क्रुक, ग्राहम इरविन, फ्रेजर आदि विद्वानों ने महत्वपूर्ण काम किया है । सर जार्ज ग्रियर्सन ने `लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इडिंया´ नामक महाग्रंथ की रचना की । इन्होंने सन् 1878 ई0 में ही मानिकचंद के गीतों पर एक निबंध लिखा था । सन् 1880 और 1882 ई0 में मैथिली व्याकरण और शब्दों के संबंध में इनके लेख प्रकाशित हुए थे । `विजयमल´ नामक गाथागीत का संकलन करके सन् 1884 ई0 में ही उन्होंने उसे प्रकाशित करवाया था । `गोपीचंद´ नामक लोकगाथा को मगही और भोजपुरी क्षेत्रों से संकलित कर प्रकाशित करने का श्रेय भी ग्रियर्सन को जाता है । सन् 1884 ई0 में इन्होंने भोजपुरी / बिहारी भाषाओं के विभिन्न प्रकार के लोकगीतों का संग्रह करके `सम बिहारी सांग्स´ और सन् 1886 ई0 में `सम भोजपुरी फोक सांग्स´ नामक बृहत् महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित करवाये थे । सन् 1885 ई0 में इन्होंने आल्हा के विवाह वाले खंड का भोजपुरी रूप ,अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशित करवाया था । सन् 1889 ई0 में जर्मनी की एक प्रसिद्ध पत्रिका में `सेलेक्टेड स्पेसिमेन ऑफ बिहारी लॉंग्वेज´ के अंतर्गत `नयका बनजरवा´ नामक गाथागीत का संकलन भी छपवाया था । सन् 1885 ई0 में इनका प्रसिद्ध ग्रंथ `बिहार पीजेंट लाइफ´प्रकाशित हुआ,जिसमें बिहार के गांवों में प्रचलित विभिन्न व्यवसायों के शब्दों का संकलन है ।
विलियम क्रूक के कार्य को भी हम अनदेखा नहीं कर सकते । उन्होंने सन् 1891ई0में ही लोकसाहित्य और संस्कृति की रक्षा एवं उन्नति के लिए `नार्थ इंडिया नोट्स एंड क्वेरीज´नामक पत्रिका का प्रकाशन किया था । यह पत्रिका पांच-छह वर्ष ही प्रकाशित हो सकी । सन् 1896 ई0 में क्रुक ने `पॉपुलर रिलीजन एंड फोकलोर ऑव नॉर्दर्न इंडिया´नामक महत्वपूर्ण ग्रंथ दो भागों में प्रकाशित कराया । उक्त ग्रंथ में भोजपुरी क्षेत्र की प्रथाओं का चित्रण विशेष रूप से हुआ है । संताली और उरांव के संबंध में रेवरेंड ए0 कैम्पवेल,जी0एस0बाम्पस,रेवरेंड पी0ओ0 बोर्डिंग आदि विद्वानों का कार्य प्रशंसनीय है । इस प्रकार बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक सारे महत्वपूर्ण काम विदेशियों द्वारा ही हुए । बाद में बिहार के श्रीशच्चन्द्र राय ने बहुत प्रशंसनीय कार्य किए । इन्होंने रांची से `मैन इन इंडिया´नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन किया । छोटानागपुर के आदिवासियों के जीवन से संबंधित इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं ।
भारतीय विद्वानों में डॉ0 इन्द्रदेव,लखनऊ विश्वविद्यालय के `सोशियोलॉजी इन भोजपुरी फोक-लिटरेचर´ नामक ग्रंथ का स्मरण किया जाना जरूरी है । लोकगीतों के संग्रह करने में मन्नन द्विवेदी और रामनरेश त्रिपाठी ने महत्वपूर्ण कार्य किए हैं । रामनरेश त्रिपाठी ने `कविता कौमुदी ´ , डॉ0 कृष्णदेव उपाध्याय ने `भोजपुरी ग्रामगीत´ और `हिन्दी प्रदेश के गीत´, बदरीनारायण शर्मा ने `कजली कुतूहल´, श्रीकृष्ण शुक्ल ने `घाघ और भड्डरि’ , देवेन्द्र सत्यार्थी ने `धरती गाती है´,बाजत आवे ढोल´, बेला फूले आधी रात, और `धीरे बहो गंगा´, श्याम परमार ने `भारतीय लोक साहित्य´, डॉ0 सत्येन्द्र ने `ब्रज लोकसाहित्य का अध्ययन´ डॉ0 हीरालाल तिवारी ने `गंगाघाटी के गीत´नामक ग्रंथों के माध्यम से महत्वपूर्ण काम किया है । भोजपुरी भाषा और उसके साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्ध भाषा शास्त्री डॉ0 विश्वनाथ प्रसाद जी का `भोजपुरी का ध्वन्यात्मक तथा ध्वनि-प्रक्रियात्मक विवेचन´ ,डॉ0 उदयनारायण तिवारी का `भोजपुरी भाषा और साहित्य´दुर्गा प्रसाद सिंह का `भोजपुरी लोकगीतों में करुण रस´ नामक शोध-प्रबन्ध(लन्दन विश्वविद्यालय) डॉ0 उदयनारायण तिवारी का `भोजपुरी भाषा और साहित्य´ नामक शोध-प्रबंध(प्रयाग विश्वविद्यालय),`अवधी,-ब्रज और भोजपुरी का तुलनात्मक अध्ययन´डॉ0 गंगाचरण त्रिपाठी, `भोजपुरी और अवधी सीमा-बोलियों का अध्ययन´ डॉ0 अमरबहादुर सिंह, `भोजपुरी लोकसाहित्य का सांस्कृतिक अध्ययन´ डॉ0 श्रीधर मिश्र, डॉ0 हरिशंकर उपाध्याय का ` भोजपुरी लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन´ और `भोजपुरी कहावतों का अध्ययन´ डॉ0 सत्यदेव ओझा की अमूल्य निधियां हैं । डॉ0शंकरलाल ने हरियाणा के लोकसाहित्य के संग्रह का काम किया है । दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह ने `भोजपुरी के कवि और काव्य´ नामक जरूरी ग्रंथ का संपादन कर भोजपुरी साहित्य को समझने में मदद की है ।
अब तक के हुए तमाम कार्य उपयोगी तो हैं लेकिन अभी इस दिशा में जरूरी कार्य किए जाने हैं । जैसे कि भोजपुरी भाषा के तमाम शब्द धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर हो रहे हैं । इनके सदा के लिए समाप्त हो जाने का खतरा मंड़रा रहा है । जैसे कि घरों में अब लकड़ी के बरतन प्रयुक्त नहीं होते । इन बरतनों के नाम -डोका, डोकी, परई, कठवत, ढकनी, फूस और मूंज से बनाए जाने वाले -डलिया, दौरी, दौरा, कुरई, मोनिया प्रयोग से बाहर हो गए हैं । सिंचाई के साधन जैसे -दौरी, ढेंकुल, हत्था, बरहा, कूंड़ को गांव की नई पीढ़ी भूलती जा रही हैं । देशी आम के बागों के कट जाने के कारण उनके तमाम नाम जैसे -लिटिहवा, भदेउंवा, महुवइया, सेंनुरिया, चोपहवा, खुजहवा, सुगहिया, कजरहवा, किरहवा आदि समाप्त हो गए । यदि शब्दकोश बना दिए गए होते तो आने वाली पीढ़ियों को विगत के इतिहास और समाज को समझने में मदद मिलती । इसलिए जरूरी है भोजपुरी और इसी प्रकार तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दकोषों का निर्माण किया जाए । अभी भी लोकगीतों के संग्रहण का कार्य पूर्ण नहीं हुआ है । अब जांत प्रचलन से बाहर हो चला है । गांवों में आटा पीसने की चिक्कयां हैं । जब औरतें आटा पीसती ही नहीं तो जांत के गीत(जांतसर) को कौन याद रखेगा । पूर्वी प्रदेशों में हिन्दुओं और मुसलमानों के रहन-सहन,बोली-भाषा और लोकसंस्कृति समान है । लोकसंस्कृति के विविध क्षेत्रों में दोनों समान रूप से रचे-बसे हैं । चाहे कजरी,बारहमासा,जंतसार गायकी हो या लोकनृत्य । पूर्वांचल का मुहर्रम ऐसा पर्व है जिसे हिन्दू और मुसलमान मिलजुल कर मनाते हैं। मुहर्रम के अंतिम दिन हिन्दू महिलाएं भी व्रत रहती हैं । हिन्दू ताजिया बनाते हैं ,चंदा देते हैं, गटका खेलते हैं ,झारी गाते हैं और ताजिया ढोते भी हैं । मैंने स्वयं इन सभी कार्यों को किया है । मुहर्रम में `झारी´ लकड़ी के डंडों को बजाकर गाई जाती है । स्त्रियां भी मुहर्रम के गीत गाती हैं । इन गीतों में हासन और हुसैन योगी के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं -हासन घरवा से निकले ले,बन के जोगिया, उनकी हथवा में तूमड़ी, बगल में डोरिया ।´ मुहर्रम के तमाम गीतों में हासन-हुसैन की लड़ाई में मांग के सिंदूर मिटने के दर्द को अभिव्यक्ति मिलती है । आज के तथाकथित पढ़े-लिखे सांप्रदायिक लोगों को यह बात अजीब लग सकती है । मुहर्रम के लोकगीतों के संग्रह का अब तक कोई काम नहीं हुआ है । लोकरंग सांस्कृतिक समिति का प्रयास होगा कि इस दिशा में कार्य किया जाए ।
पंवरिया (पौवरिया)नृत्य एवं गायकी मुस्लिम समुदाय के एक खास वर्ग द्वारा हिन्दुओं के यहां बेटे की पैदाइश पर बधाई देने के लिए प्रस्तुत किया जाता है । पंवरिया गायकी बहुत ही मधुर, संवेदनशील और कर्णप्रिय गायकी है । हिंजड़ों की संस्कृति से बिल्कुल अलग पंवरिया गायकी के पंवारे (लोकगाथाएं)मनमोहक लगते हैं । पंवरिया गायकी में कहीं राजा भरथरी गाथा को गाते हैं तो कहीं राजा घुटमल सिंह गाथा को । इन गीतों में भी हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति एकाकार नजर आ रही है । मैंने कुछ पंवरिया गीतों को मंजूर अली के सहयोग से लिपिबद्ध किया है जिन्हें इस संग्रह में प्रकाशित किया जा रहा है । पंवरिया गायकी समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है । इस संग्रह में मैंने कुछ पंवारे प्रस्तुत किए हैं जो अभी तक किसी संग्रह में शामिल नहीं हैं ।
बच्चों के खेल-खेल में गाए जाने वाले गीत, हिन्दी क्षेत्रों में बहुधा पाए जाते रहे हैं । बच्चे इन गीतों के माध्यम से अपना स्वस्थ मनोरंजन करते रहे हैं । उन्हें खेलने के लिए न तो खिलौनों की जरूरत होती थी न किसी दूसरे साधनों की । गीतों के माध्यम से खेलते हुए ही वे भरपूर मनोरंजन कर लेते थे । वर्तमान समय में गांवों की समरसता के भंग होने , सामूहिकता टूटने और आधुनिकता की विकृतियों के चलते अब बच्चों के खेल बदल गए हैं । परम्परागत खेलों की जगह क्रिकेट ने ले ली है । अभाव में जीने वाले बच्चों के खेल-गीतों के मनोविज्ञान का विश्लेषण किया जाना जरूरी है । इस संग्रह में मैंने बच्चों के कुछ ऐसे गीतों को प्रस्तुत किया है जो अभी तक किसी संग्रह में नहीं आ सके हैं ।
जनमानस और इतिहास से अस्त हो चुके तमाम लोक कलाकार, जिन्हें संभ्रांत वर्ग नचनिया-बजनिया या रंडी कह कर तुच्छ समझता था ,के बारे में न तो कोई शोध कार्य हुआ है न हम उनके योगदान से परिचित हो सके हैं । एक युग था जब छपरा की पतुरिया गुलाबो,मुजफ्फरपुर की ढेला बाई, मीरगंज(गोपालगंज)की बहनें मुनिया बाई, दुनिया बाई, बरेली के पंड़ित राधेश्याम कथावाचक, मुरादाबाद के मास्टर फिदा हुसैन नरसी, बनारस के शंकर डांसर, मुकुंदी भांड़, छपरा के महेन्दर मिसिर,सीवान के रसूल हजाम और दरबारी गिरि,फकुली (छपरा)के बसुनायक सिंह,बक्सर के पं0द्विजराम पाठक, सोहरा(छपरा) के चांदी सिंह26 ने लोक संस्कृति के लिए अपना सब कुछ लुटा दिया । देखना है आने वाले समय में हम इनके कार्यों का मूल्यांकन कर पाते हैं या नहीं ।
लोकगीत,जनसंघषों के प्राचीनतम दस्तावेज हैं । जनता की व्यथा,रुचि,कल्पना को अभिव्यक्त करने का सबसे पुराना माध्यम लोकगीत ही रहे हैं । आज भी त्रासदियों को झेलता गंवई, निरक्षर समाज अपनी पीड़ा को लोकगीतों में ही व्यक्त करता है । वर्ष 2008 की कोसी की विकरालता,बहाव ने बिहार के बीस लाख लोगों को तहस-नहस कर दिया । इस त्रासदी को एक लोकगीत में यूं व्यक्त किया गया है – `हमार किस्मत फंसल कोसी भार में, हमका मारे चिलिखा कपार में । ´
श्रम प्रधान गंवई समाज के लोकगीत श्रम करने वालों के करीब रहे हैं । इसलिए जब हम लोकगीतों की बात करते हैं तो हम वास्तव में गंवई समाज की बात करते हैं । लोकगीत शाब्दिक अर्थ में बेशक अंग्रेजी के `फोक सांग´ के करीब है लेकिन इसका सीधा मतलब आमजनता के गीतों से होता है। खेद का विषय है कि इस दिशा में ज्यादातर काम लोकगीतों को नुमाइश की चीज बनाने , भजन-कीर्तन ,शादी-व्याह जैसे संस्कारों या प्रकृति चित्रण, हंसी-ठिठोली तक ही सीमित कर देखने का रहा है । ग्रामीण समाज के संपन्न तबके ने लोकगीतों को मात्र मनोरंजन की चीज बना कर प्रस्तुत किया जिसे बाद में शहरी कलाप्रेमियों ने मात्र कला की दृष्टि से या परम्परा और संस्कृति की दृष्टि से पसंद किया । लोकगीत संस्कृति के हिस्से तो हैं ही, बहुत हद तक वे जनसंस्कृति के हिस्से हैं । वे गरीबों,दलितों के कंठों में जब समाए तो समाज की नंगई, छुआछूत, ऊंच-नीच और शोषण प्रवृत्ति पर चोट किए । इस संग्रह में लोकगीतों के इन पक्षों को सामने लाने का प्रयास किया गया है ।
संघर्षमय जीवन के दुख-दर्द को भुलाने में लोकगीतों ने मेहनतकश का भरपूर साथ निभाया है । गरीबों की जिजीविषा को बनाए रखने में लोकगीतों का बड़ा हाथ रहा है । यहां स्व के बजाए आम का ख्याल रखने की परम्परा रही है । लोकगीतों ने कई बार संघर्ष की बुनियाद तैयार की है । कई बार इन्होंने अन्याय के विरूद्ध आमजनता को जगाया है,उन्हें गोलबंद किया है । विजेन्द्र अनिल,गोरख पांडेय, महेश्वर, रमाकांत द्विवेदी `रमता´ के गीतों ने इन्हीं भूमिकाओं का निर्वाह किया है । `केकरा से करीं अरजिया हो,सगरे बंटमार27 (विजेन्द्र अनिल), सुरु बा किसान के लड़इया,चल तूहूं लड़े बदे भइया28(गोरख पांड़ेय) के गीतों ने जनता को प्रतिरोध की ताकत दी है ।
लोकगीतों का यह चरित्र,शोषकों के विरूद्ध रहा है इसलिए उन्होंने लोकगीतों की धार कुंद करने के लिए,धार्मिक और संस्कारिक गीतों को आगे किया है या इसे फूहड़पन की चासनी में डूबो कर, इनके मूल चरित्र को बदलने की कोशिश की है । आज भोजपुरी फिल्मों में यही सब देखने-सुनने को मिल रहा है । तमाम चैनलों और फिल्मों में जो भोजपुरी गीत सुनाए जाते हैं वे अश्लील होते हैं गोया भोजपुरी गीतों का मतलब अश्लील गीत होता हो । जबकि सच्चाई यह है कि भोजपुरी के लोकगीतों में गहन दर्शन, विचार, संवेदनशीलता और जीजिविषा भरी पड़ी है । देखें –
केकर जोतल,केकर बोअल,के काटेला खेत
केकर माई पुआ पकावे, केकर चीकन पेट
के मरि-मरि सोना उपजावे,के बनि जाला दानी । केकर ह ई देस ………..
ताजमहल केकर सिरजल ह, केकर ह ई ताज
केकर ह ई माल खजाना , करत आजु के राज
पांकी-कांदों में के बइठल,के सेवे रजधानी । केकर ह ई देस ………..
केकरा खून-पसीना से,लउकत बड़ुए हरियाली
के सीमा पर खून बहावे,केकरा मुंह पर लाली
के अमरित के घड़ा बनावे, के पीयेला पानी । केकर ह ई देस ………..29
`लोकरंग सांस्कृतिक समिति´ ने इन्हीं अपसंस्कृति के विरोध में और जन संस्कृति को स्थापित करने के लिए एक अभियान के तौर पर लोकरंग 2008 का आयोजन किया था और हुड़का,पखावज, फरी नृत्य को स्थान दिया था । साथ ही साथ तमाम महत्वपूर्ण लोकगीतों को विभिन्न क्षेत्रीय कलाकारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया था । पहले वर्ष हमने जनपद के तीन महत्वपूर्ण कवियों- धरीक्षण मिश्र, देवेन्द्र कुमार बंगाली और गोरख पांडेय की याद में इस आयोजन को किया था । `लोकरंग2009 में जोगिरा, कबीर, निर्गुण, कजरी, कहरवा, बिरहा, चइता गायकी, पंवरिया, कहरवा, जांघिया नृत्य, खंजड़ी और एकतारा वादन को आम जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है । `लोकरंग2009´ साठ के दशक के मशहूर लोक नर्तक रसूल हजाम और कवि मोती बी0ए0 की स्मृति में प्रस्तुत किया जा रहा है । आने वाले वषों में `लोकरंग सांस्कृतिक समिति´, अपने सीमित साधनों के बल पर लोकसंस्कृति के महत्वपूर्ण और अनछुए पक्षों को संस्कृति प्रेमियों के सामने लाने का प्रयास करेगी ।
लोकसंस्कृतियों के प्रकाशन की दिशा में हम `लोकरंग 1´ के माध्यम से आपके सम्मुख उपस्थित हैं । इस दिशा में गंभीरता से आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि लेखकों और लोकसंस्कृति प्रेमियों का सहयोग और सुझाव मिलें, तभी हम इस श्रृंखला को जारी रख सकते हैं । आशा करता हूं आप अपने आसपास बिखरी पड़ी लोकसंस्कृतियों यथा-लोकगीतों,नृत्यों, वाद्यों और लोकगाथाओं से अवगत कराएंगे ।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखंड,गोमतीनगर
लखनऊ 226010
संदर्भ और अर्थ-
1-गंगाघाटी के गीत-डॉ0हीरालाल तिवारी
2(1)-धरती गाती है- देवेंद्र सत्यार्थी (2) ज्वार, एक रुपया प्रति मन हो गया
3-वही ।
4-भोजपुरी के कवि और काव्य-हिन्दी राष्ट्रभाषा परिषद पटना ।
5-गंगाघाटी के गीत-डॉ0हीरालाल तिवारी
6-धीरे बहो गंगा-देवेंद्र सत्यार्थी
,7,8,9,10,11-वही ।
12-गंगाघाटी के गीत-डॉ0हीरालाल तिवारी
13-बेला फूले आधी रात-देवेंद्र सत्यार्थी
14-घर का भीतरी भाग
15-गंगाघाटी के गीत-डॉ0हीरालाल तिवारी
16- भोजपुरी संस्कार-गीत – संपादक- हंसकुमार तिवारी, राधावल्लभ शर्मा, हिन्दी राष्ट्रभाषा परिसद पटना`4
17-निष्कासित कर दिया,चैन से बसने नहीं दिया ।
18- भोजपुरी संस्कार-गीत – संपादक- हंसकुमार तिवारी,राधावल्लभ शर्मा, हिन्दी राष्ट्रभाषा परिसद पटना`4
19-सम्मुख । 20-सूरज दह से तात्यपर्य संभवत: समुद्र से है । 21-मुहावरा -`अछन-बिछन के रोअल´ अर्थात जार-बेजार होकर रोना
22,23,24-भोजपुरी संस्कार-गीत – संपादक- हंसकुमार तिवारी, राधावल्लभ शर्मा,हिन्दी राष्ट्रभाषा परिसद पटना-4
25-ग्राम-साहित्य, संपादक- रामनरेश त्रिपाठी
26-सूत्रघार- संजीव
27-विजेन्द्र अनिल के गीत
28-समय का पहिया-गोरख पांडेय
29-विजेन्द्र अनिल के गीत